Thursday 14 August 2014

ख़याल ... कुछ यूँ भी।

ख़याल... कुछ यूँ भी।

आदतन फिर वही गलतियाँ दोहराने का ख़याल आया है,
किसी शाख़ से गिर कर किसी दिल-ए-किताब में खोने का ख़याल आया है।

खुशमिजाज़ी में इतने दिल तोड़ दिए मैंने,
आज जाने क्यूँ बेवजह रोने का ख़याल है।

जागती रातों को दिन सा गुज़ार लिया मैंने,
आज मुद्दतों बाद सोने का ख़याल आया है।

जबसे जिस्मानी रिश्तो की लिबास उतार दी है,
सिर्फ परछाइयों से लिपटने का ख़याल आया है।

देख लिया इश्क को हुस्न के चौराहे पे भटकते हुए,
इसलिए आवारगी अपनाने का ख़याल आया है।।

A Published Anthology निर्झरिका 5/5

सियासत के रँग।

सियासत की नयी राह फिर से बनने लगी है,
त्योहारों से पहले ही दीवारों की पपड़ी उतरने लगी है।

बोल-वचन ही है असली स्वराज हमारा,
करनी के वक़्त ख़ुद की पतलून खिसकने लगी है।

अब दूध-भात भी नही मानते इस खेल में,
बहरुपियों की जमात वही पुराने करतब दिखाने लगी है।

बदलते रहते है यह मौसम वक़्त-बेवक्त,
नए साज़ पर फिर वही पुरानी धुन बजने लगी है।

विकल्पों के दौर में किसे बेहतर बताएँ,
जब हर छुट के बाद हर कीमत एक सी लगने लगी है।

A Published Anthology निर्झरिका 4/5

....परिंदों की तरह।

खानाबदोश सी ज़िन्दगी में,
अपना आशियाँ बनाते हैं,
.... परिंदों की तरह।

ज़िंदा रहने की जद्दोजहद में,
रोज़ नया मुक़ाम तलाशते हैं,
.... परिंदों की तरह।

अनजानी सी राहों में,
कितनों से कई रिश्ते जुड़ जाते हैं,
.... परिंदों की तरह।

किस्मत है वक़्त के भरोसे,
फिर भी कदम आगे बढ़ाते हैं,
.... परिंदों की तरह।

नियती है ज़िन्दगी की चलने में,
फिर भी कुछ पल रुक कर रास्ता तय करते हैं,
.... परिंदों की तरह।

दुनिया उलझी है रिश्तों में,
फिर भी चह-चहा कर मिठास घोलते हैं,
.... परिंदों की तरह।

छूटते रिश्तों के सफ़र में,
ज़िन्दगी बेफ़िक्री से जिए जाते हैं,
.... परिंदों की तरह।

Saturday 2 August 2014

तेरे बाद...

तेरे बाद...

हर चेहरा मुझे जाना पहचाना सा लगा...
कुछ यूँ हुआ एक तेरे मिलने के बाद।

ख़ुदा का नूर इतना मासूम भी होगा...
यह जाना मैंने तुझे से मिलने के बाद।

हम तो इश्क की बन्दिगी में मशगूल थे...
रूमानियत मुझ पे मुस्कुरायी तुझे छूने के बाद।

हर नज़ारा तेरे में सराबोर सा लगा...
तेरी इस जिस्म की हर महक के बाद।

मौसमों को रोज़ नए चाल में इतराते देखा...
सादगी में लिपटी इस हुस्न के बाद।

हम तो निकले थे खुदा को ढूंढने....
तलाश ख़त्म हो गयी तेरे मिलने के बाद।

चाहत...

चाहत...

हम तो बैठे थे कुछ लिखने को,
पर तेरी यादों ने मौसम-ए-इश्क को छेड़ दिया।

अभी कुछ अलफ़ाज़ ही उकेरे थे,
तेरी मौसिखी ने लफ़्ज़ों को ग़ज़ल में तब्दील कर दिया

उठ कर सोचा कहीं और दिल लगाऊँ,
तेरी खुशबु ने समां में नशा सा घोल दिया।

बैठा था तकिये के सहारे कुछ सोचने,
कमरे की हर दिवार ने तेरी शक्ल का रूप ले लिया।

अब कमरों को अँधेरा भी कर लिया था,
पर चाँदनी ने तेरे अंदाज़ में छेड़ना शुरू कर दिया।

इस चाहत का असर ख़ुदा के घर भी दिखा,
जब अचानक दुआ में मैंने तेरे नाम को पढ़ लिया।

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